गुरुवार, 17 सितंबर 2009

मन की खिड़की

प्रिय मित्रों ,

बीमार होने की वजह से पिछले कुछ महीनों से आप लोगो से मिलना नही हो पाया ,बहुत बहुत क्षमा प्रार्थी हूँ .बीमारी तो खैर दिल की है जिसके ठीक होने के आसार नहीं हैं बस दवाओं और दुआओं के साथ ही जीना है ।
अपनी एकदम ताज़ा रचना आप सबके लिए प्रस्तुत है .कृपया मेरी अनुपस्तिथि को क्षमा करते हुए अपने कमेंट्स जरुर दीजियेगा ।

मन की खिड़की


मैं
अक्सर खुली छोड़ देती हूँ,
मन की खिड़की
कि
कहीं किसी गृहणी के बालों में बंधे गजरे से
मोगरे कि खुशबू
मुझे ढूँढती हुई जाए ,
मेरी सांसों में समां जाए
तो
मेरा मन महकने लगे शायद !

मैं
अक्सर खुली छोड़ देती हूँ ,
मन कि खिड़की
कि
कहीं किसी कडकडाती ठण्ड की सुबह ,
कोई धूप का नन्हा सा छौना ,
कूद कर अन्दर आजाये
और मेरे ठिठुरते हुए पैरों को
हौले से छू ले ,
तो ठंडे हो चुके रिश्तों में ,
गर्माहट भर जाए शायद !

मैं
अक्सर खुली छोड़ देती हूँ
मन की खिड़की
कि
कहीं कोई घोंसला बनने कि फिराक में फिरती गोरैय्या
फुदक कर अन्दर जाए
किसी कोने में छुप कर,
अपना आशियाना सजाये ,
और कुछ नन्हीं -नन्हीं आवाजों से ,
घर भर जाए
तो
मेरे भीतर का सन्नाटा टूटे शायद !

मैं
अक्सर खुली छोड़ देती हूँ
मन की खिड़की
कि
कभी कोई शरद पूर्णिमा का चाँद
मेरे मन में जाए ,
और कोई कृष्ण उस चांदनी में ,
अलौकिक सुरों में बांसुरी बजाये ,
कोई राधा पैरों में पायल पहने ,
सोलह श्रृंगार किए रास रचाए
तो
सूना मधुबन गुंजार हो जाए शायद !

मैं
अक्सर खुली छोड़ देती हूँ
मन की खिड़की
कि
हवा आए
धूप आए
बारिश आए
चाँदनी आए
रंग आए
सुगंध आए
मौसम आयें
त्यौहार आयें
खुशियाँ आयें
फूल आयें
चिडियां आयें
बच्चे आयें
दोस्त आयें
प्यार आए
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और तू आए शायद!