गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

आने दो खुशियों से भरे नए साल को

सभी दोस्तों ,आदरणीयों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें
मित्रों,
जीवन आशाओं ,उमंगों और नवीनताओं से भरा हुआ एक रहस्य है जिसे केवल और केवल जीकर ही जाना जा सकता है .प्रतिदिन नया दिन होता है जिसमें बीते हुए कल से अलग कुछ होता है, इसलिए आप सभी को नववर्ष की इस नयी सुबह साल भर के हर दिन के लिए शुभकामनाएं कि आप सभी स्वस्थ रहें ,खुश रहें ,खुशियाँ बांटें और देखें की आपकी खुशियाँ चौगुनी होकर आपको मिलेंगी इन्ही शुभ कामनाओं के साथ नए साल के स्वागत में कुछ पंक्तियाँ -----


मन से निकल दो सब मैल को, मलाल को
आने दो खुशियों से भरे नए साल को

बीती सो बात गई ,
अंधियारी रात गई .
नव प्रभात आया है ,
लेकर सौगात नई

फैलने दो मन आँगन, प्यार के गुलाल को
आने दो खुशियों से भरे नए साल को

लेकर संकल्प नए ,
तलाशें विकल्प नए
दिन बीते ,युग बीते ,
फिर आये कल्प नये

क्या होगा ?कब होगा ?छोडो इस सवाल को
आने दो खुशियों से भरे नए साल को

खुशियाँ दें, गम ले लें
सुख- दुःख मिलकर झेलें
जीवन के खेल को ,
हँस -हँस कर हम खेलें

साथ आयें ,सुलझाएं जीवन जंजाल को
आने दो खुशियों से भरे नए साल को

सीमा

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

मन की खिड़की

प्रिय मित्रों ,

बीमार होने की वजह से पिछले कुछ महीनों से आप लोगो से मिलना नही हो पाया ,बहुत बहुत क्षमा प्रार्थी हूँ .बीमारी तो खैर दिल की है जिसके ठीक होने के आसार नहीं हैं बस दवाओं और दुआओं के साथ ही जीना है ।
अपनी एकदम ताज़ा रचना आप सबके लिए प्रस्तुत है .कृपया मेरी अनुपस्तिथि को क्षमा करते हुए अपने कमेंट्स जरुर दीजियेगा ।

मन की खिड़की


मैं
अक्सर खुली छोड़ देती हूँ,
मन की खिड़की
कि
कहीं किसी गृहणी के बालों में बंधे गजरे से
मोगरे कि खुशबू
मुझे ढूँढती हुई जाए ,
मेरी सांसों में समां जाए
तो
मेरा मन महकने लगे शायद !

मैं
अक्सर खुली छोड़ देती हूँ ,
मन कि खिड़की
कि
कहीं किसी कडकडाती ठण्ड की सुबह ,
कोई धूप का नन्हा सा छौना ,
कूद कर अन्दर आजाये
और मेरे ठिठुरते हुए पैरों को
हौले से छू ले ,
तो ठंडे हो चुके रिश्तों में ,
गर्माहट भर जाए शायद !

मैं
अक्सर खुली छोड़ देती हूँ
मन की खिड़की
कि
कहीं कोई घोंसला बनने कि फिराक में फिरती गोरैय्या
फुदक कर अन्दर जाए
किसी कोने में छुप कर,
अपना आशियाना सजाये ,
और कुछ नन्हीं -नन्हीं आवाजों से ,
घर भर जाए
तो
मेरे भीतर का सन्नाटा टूटे शायद !

मैं
अक्सर खुली छोड़ देती हूँ
मन की खिड़की
कि
कभी कोई शरद पूर्णिमा का चाँद
मेरे मन में जाए ,
और कोई कृष्ण उस चांदनी में ,
अलौकिक सुरों में बांसुरी बजाये ,
कोई राधा पैरों में पायल पहने ,
सोलह श्रृंगार किए रास रचाए
तो
सूना मधुबन गुंजार हो जाए शायद !

मैं
अक्सर खुली छोड़ देती हूँ
मन की खिड़की
कि
हवा आए
धूप आए
बारिश आए
चाँदनी आए
रंग आए
सुगंध आए
मौसम आयें
त्यौहार आयें
खुशियाँ आयें
फूल आयें
चिडियां आयें
बच्चे आयें
दोस्त आयें
प्यार आए
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और तू आए शायद!

शनिवार, 27 जून 2009

आउंगी ज़रूर मैं

आउंगी जरुर मैं

आउंगी जरुर मैं ,
पर
प्रतीक्षा मत करना मेरी

किसी भी दिन अचानक
आकर खड़ी हो जाउंगी ,
तुम्हारे सर्वथा निजी एकांत में
सोख लूंगी तुम्हारे भीतर की निस्तब्धता ,
अपनी उन्मुक्त हँसी से
मुस्कुराये बिना नहीं रह सकोगे तुम


आउंगी जरुर मैं
पर ,
प्रतीक्षा मत करना मेरी

किसी भी दिन अचानक
झाँकने लगूंगी ,मुडे -तुडे पन्नों से
कविता की पुरानी पुस्तक के .
खोल दूंगी यादों की खिड़कियाँ
कविता की पंक्तियों से
पढ़े बिना नही रह सकोगे तुम

आउंगी जरुर मैं
पर
प्रतीक्षा मत करना म्रेरी

किसी भी दिन अचानक
गूंजने लगूंगी तुम्हारे हृदय में ,
वंशी की मधुर तान सी
घोल दूंगी रस
तुम्हारे प्राणों में ,मन में
गुनगुनाये बिना नहीं रह सकोगे तुम

आउंगी जरुर मैं
पर
प्रतीक्षा मत करना मेरी

हो सके तो
बस
खुले रखना द्वार
हृदय के
कि
मैं आकर खड़ी हो सकूँ

हो सके तो
बस
सम्हाल कर रखना
कविता की पुरानी पुस्तक
कि
झांक सकूँ उ़सके पन्नों से

हो सके तो
बस
सहेज कर रखना
मन की बांसुरी
कि
मैं छेड़ सकूँ कोई धुन

आउंगी जरुर मैं
पर
प्रतीक्षा मत करना मेरी

शनिवार, 13 जून 2009

बदल बन जायें


आओ हम बादल बन जायें
प्रेम की रिमझिम फुहारों से ,
धो डालें उस धूल को ,
जो
वृक्षों के पत्तों पर ,फूलों पर ,डालों पर जम गई है
और जमी है ,हम सब के अन्तर में , कटुता बन कर
आओ हम बादल बन जायें

आओ हम बादल बन जायें
ताकि भुला सकें हम आपस का वैमनस्य ,
जो
बांटता है हमको ,
धर्मों में ,वर्णों में ,
जाती
में ,वर्गों में
और
बाँट देता है , आदमी को आदमी से

आओ
हम बादल बन जायें

आओ
हम बादल बन जायें
क्योंकि बादल तो बस उमड़ घुमड़ कर बरसना जानता है
वह नही जानता के उसके बरसने से
राजा भीगेगा या फ़कीर
बादल
का तो बस एक ही धर्म
उमडना ,घुमडना ,बरसना ...... और बरसना

तो आओ हम बादल बन जायें .

रविवार, 17 मई 2009

गीत

मित्रों ,कभी कभी कुछ भाव हैं जो गीत की शक्ल में ही आते हैं तब मैं न चाहते हुए भी गीत लिख लेती हूँ हालाँकि गीत मेरी विधा नही है .इस गीत की प्रेरणा आदरणीय बुद्धिनाथ मिश्र जी के एक प्रसिद्ध गीत -"एक बार जाल और फेंक रे मछेरे ,जाने किस मछली में बंधन की चाह हो "से मिली और ये गीत बना, वही गीत यहाँ प्रस्तुत है।

चाह नहीं बंधन में बंधने की अब कोई ,
अब तो ये जीवन ही मेरा विस्तार है ।

कुछ बंधन स्वर्णिम हैं ,
कुछ बंधन चमकीले ।
कुछ बंधन फूलों से ,
कुछ लगते हैं ढीले ।

बंधन तो बंधन हैं ,
मुझको इंकार है ।


कुछ बंधन ममता के ,
कुछ हैं दुलार के ।
कुछ बंधन देह के हैं ,
कुछ हैं प्रीत -प्यार के ।

बंधन संबंधों में,
कर रहे दरार हैं ।

कोई कहे बंधन ही ,
जीवन अनुशासन है ।
कोई कहे आजादी ,
सत्य से पलायन है ।

औरों के मत -अभिमत ,
कब मुझे स्वीकार हैं ?

सब बंधन टूटेंगे ,
जाना है एक दिन ।
सब पीछे छूटेंगे ,
जाना है एक दिन ।

फ़िर इतना क्यूँ बांधे,
नश्वर संसार है ।

चाह नही बंधन में बंधने की अब कोई ,
अब तो ये जीवन ही मेरा विस्तार है .

शुक्रवार, 15 मई 2009

टुकडा -टुकडा जिंदगी

चलो ,इस टुकडा -टुकडा ज़िन्दगी को जोड़ कर ,
एक चादर सी लें
एक चादर ,
जो कभी तेरा लिबास बन जाए
कभी मेरा लिबास बन जाए
और जब वक्त की धूप
हमारे सर पर आए ,
तो ये चादर हम दोनों का सरमाया बन जाए

चलो ,इस टुकडा -टुकडा ज़िन्दगी को जोड़ कर ,
एक चादर सी लें
एक चादर ,जिसे ओढ़ कर हम
अपनी सपनों की दुनिया में खो जायें
जहाँ .......
एक शांत बहती नदी हो
जहाँ ...........
पुराने मन्दिर हों
जहाँ चाँद -तारों भरा आकाश हो
और जब मैं नींद से जागूँ ,
तो तू मेरे पास हो