ब्लॉग मित्रों ,
आप लोगों की उत्साहवर्धक टिप्पणियों के प्रताप से मुझमें भी आपनी नई-पुरानी रचनाओं को पोस्ट किए चले जाने का चस्का लग गया है सो आपलोग अब अपनी करनी का फल प्राप्त करो..... और एक रचना झेलो -
मैंगर्म ,तपती हुई रेत पर ,
पानी की एक बूँद,
मैं ,
गिरी तो क्षण भर में ,
समाप्त हो गई ।
समाप्त हो गया मेरा अस्तित्व ।
कौन जाने
क्यों ...?
कहाँ ...?
कब ...?
कैसे ...?
गिरी वह बूँद ,
और फ़िर मरुभूमि में गिरकर ,
क्या बनी...?
मैं भी नहीं जानती मेरा क्या होगा ।
बदल बन के बरसने की सामर्थ्य नहीं मुझमें ।
शायद कहीं ....
फूलों पर शबनम की बूँद बनकर ,
या फ़िर
दूब की नोक पर तुहिन कण सी ,
चमकुंगी केवल सुबह -सवेरे ।
लेकिन .......
कौन जानेगा मुझे ...?
पहचानेगा मुझे ...?
कि
मैं वही मरू भूमि में गिर पड़ी एक बूँद हूँ ।
किंतु तुम पहचान लेना ।
हर एक बूँद ,जो ओस है या आंसू है ,
मेरा ही सर्वांश है ,यह जान लेना ।
और फ़िर तुम देखना ,
कैसे झरते -झरते हंसूंगी मैं ,
और हंसते -हंसते झरूँगी मैं .