प्यार
मैंने तुम्हें कभी नही किया अस्वीकार
जब तुमने पुकारा
मैंने खोल दिए द्वार ।
कभी प्रतीक्षा में तुम्हारी
सजाई रंगोली ,
बांधे बन्दनवार ।
प्यार
मैंने तुम्हें कभी नही किया अस्वीकार ।
कभी सूनेपन में तुम्हें
गीत बनाकर गा लिया ।
कभी अकेलेपन में ,
मीत बना ह्रदय से लगा लिया ।
प्यार ....
मैंने तुम्हे कभी नहीं किया अस्वीकार
किंतु ...मेरा द्वार सुना ही रहा
किंतु ,मेरा गीत अधूरा ही रहा
और रहा भुजपाश भी खाली मेरा ।
दूर -दूर तक कोई नहीं था
बस....अँधेरा
प्यार ...
सच बतलाओ
क्या तुम इश्वर की तरह होने और न होने के बीच हो ?
सच बतलाओ ....
क्या तुम इतने विराट हो ?
कि मेरे द्वार से आ नही सकते
या मेरे भुज पाश में समां नहीं सकते ।
या फ़िर हो इतने छुद्र ,
इतने झूठे ,इतने अस्तित्वहीन
कि मुझे अपने होने का विश्वास भी नहीं दिला सकते ।
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009
गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009
अहिल्या

अहिल्या की कथा पढ़ -पढ़ कर
सोचती रहती थी मैं अक्सर
कि
कैसे बदल जाती होगी
अक जीती जागती औरत
पाषाण की शिला में ?
कैसा होता होगा वह क्रूर शाप ?
जो
जमा देता होगा शिराओं में बहते रक्त को ।
आज अपने अनुभव से जाना,
संवेदनहीन ,प्रवंचना युक्त अंतरंगता का साक्षात्कार ,
कभी धीरे -धीरे और कभी अचानक
जमा देता है
संबंधों की उष्ण तरलता को.
शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009
मौसम

मोरपंखी दिन हुए हैं ,सिंदूरी शाम ।
सांवरी सुहागन रात,
चांदनी चादर ओढे ,
सिमट -सिमट जाती है ।
आसमान के सीने में छिपाकर चेहरा ,
गाती है ,होंठों ही होंठो में ,
प्रियतम का नाम।
मोरपंखी दिन हुए हैं ,सिंदूरी शाम ।
कोहरे मैं लिपटी सुबह ,
थमा जाती है ,चाय का प्याला ।
उन्घियाता सूरज भी ,जल्दी से मुहं धोकर
चल देता शाला ।
धुप किसी मृग छौने सी ,
भरती है चौकडी ।
कभी आँगन ,कभी ओसारे
कभी चढ़ जाती बाम।
मोरपंखी दिन हुए हैं ,सिंदूरी शाम ।
ऐसे में मन को भी ,
कोई समझाए क्या ,
जाकर न लौटे जो,
वो याद भी न आयें क्या ।
हवा ...कहीं मिल जायें वो जो तुम्हें ,
कह देना उनसे तुम मेरा प्रणाम ।
मोरपंखी दिन हुए हैं सिंदूरी शाम
शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009


एक जंगली बेल की तरह फैलता हुआ मेरा प्यार ,
तुमने उसको बोनसाई बनाना चाहा हर बार ।
खुशियों की जड़ें काटीं
खिलखिलाहटों के पत्ते तोडे ।
लगाया एक उथली कमाना के गमले में ।
सींचा सुविधाओं की कृत्रिम नमी से ।
अफ़सोस लेकिन,
तुम्हारा हर यतन गया बेकार ।
जंगली बेल की तरह फैलता हुआ मेरा प्यार ।
तुमने उसको बोनसाई बनाना चाहा हर बार ।
तुम्हारी ऐसी कोशिशों से भी,
मेरा प्यार मर -मर के जीता रहा ।
सुविधाओं के बूंद -बूंद पानी को ,
अमृत समझ पीता रहा ,
लेकिन उसमें कभी न फूटे ,
कोमल -कोमल नन्हें पात,
न ही फूलों से भरा ,
प्रेमलता का कोमल गात।
कैसे समझाती मैं तुम्हें ,
की जंगली बेलों की बस इतनी ही जरूरत है ,
जड़ों को मिले नमी और ताने को विस्तार ।
जंगली बेल की तरह फैलता हुआ मेरा प्यार .
बुधवार, 4 फ़रवरी 2009
geet

पास आओ तुम जरा
मैं ज़िन्दगी से प्यार कर लूँ ।
तुमसे अपने सुख दुखों की ,
बातें भी दो चार कर लूँ ।
हर कदम और हर डगर पर ,
जीत मेरी ही रही है ।
प्रशंसा के पुष्प पाए ,
चोट मैंने कब सही है ?
किंतु तुमसे मिल के जाना,
हर में भी सुख कहीं है ।
इस निरर्थक जीत को मैं ,
आज अपनी हार कर लूँ ।
पास आओ तुम जरा .............
नेह -नाते ,मोह -ममता ,
बंधन समझ कर तोड़ डाले ।
मैं ही मैं बस मैं ही मैं हूँ ,
मुझको न कोई लाँघ डाले
मैं शिखर पर बैठ कर भी ,
हो गया कितना अकेला ।
चाहता हूँ कोई अपनी गोद में ,
मुझको छुपा ले ।
आज सब रूठे हुओं से ,
चलो मैं मनुहार कर लूँ ।
पास आओ तुम जरा ...........
इस उतरती धूप में अब
हो रहा विश्वास मुझको ,
स्वार्थ के बंधन जकड कर
दे रहे संत्रास मुझको ।
मैं हमेशा झूट का सर्जक रहा हूँ ,
सत्य लेकिन सत्य है ,यह
हो चला विश्वास मुझको ।
प्रेम की इस अग्नि मैं अब ,
पाप का परिहार कर लूँ ।
पास आओ तुम जरा मैं
ज़िन्दगी से प्यार कर लूँ .
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